Thursday 29 October 2020

कठोपनिषद पद्यानुवाद द्वितीय अध्याय व्याख्या कार :स्वामी चिन्मयानन्द एवं सर्वपल्ली राधाकृष्णन ।....

        प्रथम वल्ली

परांचि खानि व्यतृणत्स्वयम्भू_
स्तस्मात्परांपश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष_
दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।

इन्द्रियों को बहिर्मुख कर नष्ट उनको कर दिया। 
देखतीं बाहर कब अन्तरात्मा देखा किया।
 इन्द्रियों को रोक कर अमृतत्व की इच्छा करे। 
धीर व्यक्ति वही है जो अंतरात्मा लख सके।

पराचः कामाननुयन्ति बालास्ते
मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम् ।
अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा
ध्रुवम ध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते।। 2।।

बाह्य भोगों में लगा नर फँसे मृत्यु पाश में। अमरत्व को ध्रुव जान रहता धीर अन्य तलाश में।
काम कर्म व अविद्या तीनों हृदय की ग्रंथियाँ। 
इनके फलों को भोगने को निम्न इतनी  योनियाँ। 
जो धीर व्यक्ति सचेत रहें विवेक से औ' ज्ञान से।
सीमित नश्वर अस्थिर इन्द्रिय भोग इच्छा से परे। 
करते दमन वे इन्द्रियों का कर्म काम व अविद्या।
जब नष्ट होते फैलती हैं ज्ञान की तब रश्मियाँ।

येन रूपं रसं गन्धं
शब्दान् स्पर्शांश्च मैथुनान् ।
एतैनेव विजानाति
किमत्र परि शिष्यते ।। एत द्वै तत् ।। 3।।

आत्मा द्वारा मिलता नर को इन्द्रिय सुख का ज्ञान। 
अविज्ञेय नहीं इस से कुछ भी इतना लो तुम जान। 
जीवात्मा ही परमात्मा है परमात्मा जीवात्मा।
 यह वही है वह यही है करें भ्रम का ख़ात्मा।

स्वप्नान्तं जागरितान्तं
चोभौ येनानुपश्यति।
महान्तं विभुमात्मानं
मत्वा धीरो न शोचति।। 4।।

होता प्रतीत जो स्वप्न में जाग्रत अवस्था में दिखें। 
आत्मा लखे यह जान कब धीर जन शोक करें। 
अपूर्णता के भाव से ही जन्म लेती कामना।
किस भाँति होवे पूर्ण है यह इन्द्रियों से सामना।
फल प्राप्त या अप्राप्त इच्छा दुःख का कारण बने। 
जब जान लेता ब्रह्म हूँ तब ही पुरुष पूरण बने। 

य इमं मध्वदं वेद
आत्मानंद जीवमन्तिकात्। 
ईशानं भूतभव्यस्य
न ततो विजुगुप्सते।। एतद्वै तत्।। 5।।

हो अभय भूत भविष्य शासक आत्मा को जानता। 
प्राण धारक कर्मफलभोक्ता उसी को मानता।

यः पूर्व तपसो जात_
मदभ्यः पूर्वमजायत। 
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं
यो भुतेभिरव्यपश्यत।। एतद्वै तत्।। 6।।

भूतों से पहले तप से जो उत्पन्न हुए। 
बुद्धि रूपी गुहा में हो प्रविष्ट उसे लखे। 
देखता जो इस तरह वह देखता है ब्रह्म को
निश्चय यही है देखना जो चाहता तू ब्रह्म को।

या प्राणेन सम्भवत्य_
दितिर्देवतामयी ।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं
या भूतेभिर्व्यजायत।। एतद्वै तत्।। 7।।

प्राण रूप से प्रकट हो देवमाता अदिति। 
बुद्धि रूपी गुहा में होती प्रतिष्ठित स्थिति। 
पैदा हुई है पंचभूतों संग प्रकृति रूप है। 
जो जानता है अदिति को यह तत्व ब्रह्म स्वरूप है।

अरण्योर्निहितो जातवेदा
गर्भ इव सुभृतो गर्भणीभिः। 
दिवे दिवे ईड्यो जागृवद्भिर्ह
विष्भद्भिर्मनुष्येभिरग्निः।। एतद्वै तत्।। 8।।

पोषित हुई है गर्भ सम जो अग्नि अरणी बीच में। 
नित्यप्रति है स्तुत्य अप्रमादी नर बीच में।
होम सामग्री सहित करते पुरुष जिसकी स्तुति।
वह योग्य अग्नि ब्रह्म है करते पुरुष जिसकी स्तुति।

यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं
यत्र च गच्छति। 
तं देवाःसर्वे अर्पितास्तदु
नात्येति कश्चन।। एतद्वै तत्।। 9।।

होता जहाँ से उदित सूर्य व जहाँ होता लीन है। 
वह ब्रह्म है चैतन्य सत्स्वरूप है प्राचीन है।  व्यक्त करें अनित्य जगत वह ही सूर्य देव हैं।
 इन पंचभूतों के अधिष्ठाता कहाते देव हैं।

यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह ।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति न इह नानेव पश्यति।। 10।।

जो तत्व हैं इस देह में वह तत्व ही अन्यत्र हैं। 
अन्यत्र हैं जो तत्व वह इस देह में सर्वत्र हैं। यह तत्व है बस एक पर देखे यहाँ अनेक। 
जन्म मृत्यु के चक्र में लेता जन्म अनेक।
आत्मज्ञानी पुरुष देखे जगत को इस रूप में। 
है अधिष्ठाता नियन्ता ब्रह्म एक ही रूप में।

मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।। 11।।

आत्मा मन से प्राप्त हो तत्व यही है एक।
जन्म मृत्यु पाता रहे देखे अगर अनेक। 
धीरे-धीरे नियन्त्रित चित्त किए मन शान्त। 
आध्यात्मिक जिज्ञासु हो उत्तर ढूँढे शान्त। 

अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति। 
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते।। 
एतद्वै तत्।। 12।।



अंगुष्ठ के परिमाण वाला बसे तन के मध्य में। 
भूत और भविष्य शासक आत्मा तन मध्य में।
रक्षा न करे शरीर कीअनुसरण आत्मा का
करे। 
निश्चय यही ऐ ब्रह्म तत्व न और कुछ इसके परे।

अंगुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः। 
ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः।। 
एतद्वै तत्।। 13।।

धूमरहित निर्मल निश्चल ज्योति तीनों काल में। 
अंगुष्ठमात्रः पुरुष लखे साधक सदा हर हाल में। 
सब प्राणियों में आज है कल भी रहेगा यह सदा।
 विकसित करे निज ध्यान तो मिल जाय उसमें सर्वदा। 

यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति। 
एवं धर्मान्पृथक् पश्यन्तानेवानुविधावति।। 
।। 14।।

दुर्गम पर्वत पर बरसा जल नीचे बह कर जाय। 
अनियन्त्रित मन कामनावश इसे रोक न पाय। 
देख  वस्तुओं को पृथक उन सम ही हो जाय। I 
करें अगर एकत्र तो जल लाभप्रद हो पाय। 

यथोदकं शुद्ध शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति
एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम। 
।। ।5।। 

मिथ्या भ्रम संशय मिटें रहे शुद्ध जब ज्ञान। तब होता है व्यक्ति को परमात्मा का भान। मिलें शुद्ध जल तो रहें दोनों एक  समान। 
ज्ञानी मुनि और आत्मा यूँ ही मिलते आन।

          द्वितीय वल्ली

पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः। 
अनुष्ठान न शोचति विमुक्तस्य विमुच्यते। 
।। 1।।

नित्य अजन्मा आत्मा इसकी नगरी ग्यारह द्वार। 
मुक्त अविद्या बंधन तो आत्मा से साक्षात्कार। 
जन्म मरण के चक्र से छुटे पाए वह नर मुक्ति। 
नचिकेता यह ब्रह्म है वही पूछी जिसकी युक्ति। 

हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षस_
द्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ।
नृषद् वरसदृतसद व्योमसदब्जा
गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ।2।

सूर्य रूप आकाश में अंतरिक्ष में वायुरूप। अग्नि रूप में धरा पर घर में अतिथि स्वरूप। 
रहता देवों नरों में तथा यज्ञ आकाश। 
जलजा गोजा शैलजा ऋतजा सत्यप्रकाश। 

ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति। 
मध्ये वामनमासीनं विश्व देवा उपासते। 3।

ऊपर जाता प्राण ले नीचे लाय अपान। मध्यस्थित इस पूज्य का करें देव सम्मान। 

अस्य विस्रं समान्
 शरीरस्थस्य देहिनः ।
देहाद् विमुच्यमानस्य
किमत्र परिशिष्यते ।एतद्वै तत्।। 4।।

तजता जब इस देह को देही हो अवसान। 
पंचतत्व में जा मिलें तुच्छ देह को मान। 

न प्राणेन न अपानेन मर्त्य  जीवति कश्चन।
इतरेण तु जीवन्त यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ। 5।

जीता नहीं कोई मनुज भी प्राण से न अपान से। 
जब आत्मा तन छोड़ता तो मनुज जाता जान से। 

हन्त त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम्
यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम। 
।। 6।।

जीवात्मा तन छोड़ती तब हो जाती ब्रह्म। 
कर्म ज्ञान आधार पर मिले दूसरा जन्म। 

योनिमन्येप्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्।

देहधारी हो कि स्थावर कर्म करते हैं नियत ज्ञान क्या अर्जित किया इस देह से देते सुमत। 

या एष सुप्तेषु जागर्ति
कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः। 
तदेव शुक्र तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते। 
तस्मिन्लोकाः श्रिताः सर्वे
सदुनात्येति कश्चन। एतद्वै तत्।। 8।।

जाग्रत स्वप्निल सुप्तावस्था जीवात्मा के रूप। 
रहे अलिप्त सदा अनुभव से आत्मा का हर रूप। 
विषय वासना ईर्ष्या स्वार्थ आदि सब वृत्त
देह लिप्त हो आत्मा रहता सदा अलिप्त। 

अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टोरूपं
रूपं प्रतिरूप बभूव। 
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। 9।।

हो प्रविष्ट जब अग्नि विश्व में हर रूप के अनुरूप हो। 
भीतर बाहर रहे आत्मा प्राणी रूप के अनुरूप हो। 

वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूप बभूव। 
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपं बहिश्च।। 10।।

जिस भाँति वायु प्रविष्ट हो इस लोक में बहुरूप हो।
सब प्राणियों का अन्तरात्मा बाह्य हो बहुरूप हो। 

सूर्य यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न
लिप्यतेचाक्षुषैर्बाह्यदोषैः। 
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः।। 11।।

सूर्य नेत्र इस लोक का करता लोक प्रकाश। 
किन्तु नेत्र के दोष का होता तनिक न भास। 
दुःख भरे संसार को भोगे यहाँ शरीर। 
लिप्त न होता आत्मा रहे नित्य गम्भीर। 

एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा 
एकं रूपं बहुधा यः करोति। 
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरा_
स्तेषां सुखं शाश्वत नेतरेषाम्।। 12।।

सर्वभूत अन्तरात्मा सबको रखे अधीन। 
एकरूप बहुरूप हो होता सर्वाचीन। 
जो देखे इस रूप में आत्मा ले आनन्द। 
धीर विवेकी और स्थिर नर पाता आनन्द। 

नित्य नित्यानां चेतनश्चेतनाना_
मेको बहूनां यो विद्धाति कामान् ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां
शान्तिःशाश्वती नेतरेषाम् ।। 13।।

परिवर्तन है नियम जगत का जाने यह सब कोय। 
नित्य रूप अन्तरात्मा बिना न सम्भव होय। 
कर्मफलों के रूप में सुख दुःख पाती देह। 
आत्मा साक्षी की तरह रहता अपरिमेह। 

तदेतदिति मन्यन्ते अनिर्देश्यं परमं सुखम् ।
कथं नु तदविजानीयां किमु भाति विभातिवा।। 14।।

धीर पुरुष के लिए परम सुख यही आत्म 
विज्ञान। 
होता है या नहीं प्रकाशित कैसे पाऊँ जान? 

न तत्र सूर्य भाति न चन्द्र तारकं
नेमा विद्युत भान्ति कुयोऽयमग्निः। 
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।। 15।।

वहाँ प्रकाशित होता सूर्य न चन्द्र और न तारे। 
विद्युत चमके और न करती अग्नि वहाँ उजियारे। 
स्वयं प्रकाशित होता आत्मा उसकी कांति महान। 
करता सबको प्रकाशित आत्मा प्रकाशमान। 

          तृतीय वल्ली

ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख
एषोऽश्वत्थ सनातनः। 
तदेव शुक्र  तद ब्रह्म
तदेवामृतमुच्यते। 
तस्मिन्लोकाः श्रिताः सर्वे
तदु नात्येति कश्चन। एतद्वै तत्।। 1।।

सर्वोत्तम व पवित्रतम मूल वृक्ष का भाग। 
कल न रहेगा जो वही है अश्वत्थ नर जाग। है अनित्य संसार सदा से जन्म मृत्यु का फेरा। 
मूल ब्रह्म ही शुद्ध है आश्रित लोक ये तेरा। 
यदिदं किंच जगत् सर्वं
प्राण एजति निसृतम्। 
महदभयं वज्रमुद्यतं
य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति।। 2।।

उदित ब्रह्म से यह जगत क्रियाशील हो जाय। 
उठे वज्र से महद्ब्रह्म को जान अमर हो जाय। 
सृष्टिगति लयबद्ध है नक्षत्र तारागण सभी।
आदेश मानें नियन्ता का जो कि सत् चैतन्य भी। 

भयादस्याग्निस्तपति भयास्तपति सूर्यः। 
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचमः।3।

अग्नि तपे सूरज तपे उसके भय से जाय। 
दौड़ाएं इन्द्र वायु औ'मृत्यु भय है सबहिं समाय। 

इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक्शरीरस्य विस्रसः।
ततः सर्वेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।4।

यदि मनुष्य अज्ञान को नष्ट नहीं कर पाता। 
आत्मज्ञान बिन जन्म मृत्यु का वही चक्र रह जाता। 
स्वप्न रूप अज्ञान है जाग्रत रूपी ज्ञान। 
केवल मनु तन में कटे तेरा यह अज्ञान। 
स्वत्व भाव से करले नर आत्मा से साक्षात्कार। 
जीवभाव मिट जाय मिटे इस तन का अहंकार।

यथादर्शे तथाऽत्मनि
यथा स्वप्न तथा पितृलोके। 
यथाप्सु परीवददृशे तथा गन्धर्वलोके
छायातपयोरिव ब्रह्मलोके।। 5।।

दिखता है दर्पण में जैसे। 
आत्मा में ब्रह्म दिखे वैसे। 
पितृलोके में स्वप्न सम गंधर्वलोक में जल सम है अस्पष्ट। 
ब्रह्म लोक में है प्रकाश और छाया सदृश स्पष्ट। 

इन्द्रियां पृथग्भावं उदयास्तमयौ च यत्। 
पृथक् उतपद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति।। 6।।

पृथक भूतों से होती  इन्द्रिय उत्पन्न विभिन्न। 
उनकी क्षय उत्पत्ति से नहीं बुद्धिमान नर खिन्न। 
आत्मा उनसे अलग है जाने यह नर धीर। 
भोगों से आबद्ध तो रहता सिर्फ शरीर। 

इन्द्रियेभ्यः परं मनः मनसःसत्वमुत्तमम्। 
सत्वादधिमहानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम्।। 7।।

अव्यक्तात्तुपरः पुरुषःव्यापकोऽलिङ्ग एव च
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति। 
।। 8।।

इन्द्रिय से मन श्रेष्ठ है उससे बुद्धि श्रेष्ठ। 
महत्ततत्व उससे अधिक फिर अव्यक्त है श्रेष्ठ। 
सर्वश्रेष्ठ अलिङ्ग पुरुष जाने जो नरधीर। 
मुक्तिसाधना पूर्ण कर अमर होय नरधीर। 

न संदृशे तिष्ठतिरूपमस्य
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्। 
हृदा मनीषा मनसाभितृप्तो
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।। 9।।

नहीं दृष्टि में ठहरता है आत्मा का रूप। 
नेत्र देख पाते नहीं अद्भुत रूप अनूप। 
मनन शक्ति से प्रकाशित इसका हृदय स्थान। 
अमर होय वो नर जिसे हो आत्मा का ज्ञान। 

यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। 
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।
।। 10।।

शान्त हों मन सहित जब ज्ञानेन्द्रियाँ पाँचों  यहाँ। 
निश्चेष्ट हो जब बुद्धि उसको परम गति कहते यहाँ। 

तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिनद्रिय धारणाम् ।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।। 11।।

स्थिर इन्द्रिय धारण को ही तो कहें धीरजन योग। 
मन द्वारा एकाग्र भाव से आत्मा से संयोग। 

नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते।
।। 12।।

मन वाणी और नेत्र से आत्मा सकें न पायँ
ऐसा है वह जो कहें और किस तरह पायँ। 

अस्तीत्येवोपलब्धस्य स्तत्वभावेन चोभयोः
अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्वभावः प्रसीदति ।
।। 13।।

ब्रह्मलोक उपासना और ओम का ध्यान। 
सुख पाए उस लोक के ऐसा नर विद्वान। 
ले आलम्बन ओम का आत्मतत्व का ध्यान। 
स्वात्म भाव से समाधि हो आत्मा का भान। 
वह आत्मा है आय जब मन में ऐसा बोध। 
उसे न मिलता मार्ग में कोई भी अवरोध। 
जाने जो सम्पूर्ण सृष्टि में आत्मा को ही सार। 
उसी पुरुष को आत्मतत्व से होता साक्षात्कार। 
शान्त इन्द्रियाँ मन रहेविषयों से निवृत्त। 
होसंघर्ष न बुद्धि का पूर्ण आत्म पर चित्त। 

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते
कामा येऽस्य हृदिश्रिताः। 
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र
ब्रह्म सयश्नुते।। 14।।

छुटें हृदय की कामना सभी तभी वह धीर। ब्रह्म भाव को प्राप्त फिर होता वह नरवीर

यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते
हृदयस्येह ग्रन्थयः। 
अथ मर्त्योऽमृतो भव_
त्येतावद्ध्यनुशासनम्।। 15।।

जब छेदित हों हृदय की ग्रन्थ सभी तो जीव। 
अमर होय उस समय ही ऐसा साधक जीव। 
काम कर्म और अविद्या का जब तोड़े पाश
होता ज्ञान प्रकाश से अमर अविद्या नाश। 
साधक को हो आत्मज्ञान तो जाने उसकी आत्मा। 
प्राणिमात्र की आत्मा है आत्मा ही परमात्मा। 

शतं चैका च हृदयस्य नाड्य_
स्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका ।
तमोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति
विष्वङ्ङन्यां उत्करमणे भवन्ति ।। 16।।

ब्रह्म रंध्र तक एक हृदय से नाड़ी जाती। 
ज्ञानमार्ग से यही सुषुम्ना नाड़ि कहाती। 
करें हृदय की एक सौ नाड़ी प्राणोत्सर्ग।
पाता है अमरत्व को ऊर्ध्वगमन कर वर्ग। 

अङगुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा
सदा जनानां हृदयेसन्निविष्टः ।
तं स्वाच्छरीरात् प्रवृहे_
न्मुञ्जादिवेषीकां धैर्येण ।
तं विद्याच्छुक्रममृतं
तं विद्याच्छुक्रममृतमिति।। 17।।

रहे जीव के हृदय आत्मा है अंगुष्ठ परिमाण। 
करे आवरण इसके बाहर धीर मुञ्ज सम जान। 
शुद्ध अमृत रूप में समझे इसे जाने इसे। 
इस आत्मा के रूप में अमरत्व को पाले इसे। 

मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लब्ध्वा
विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम्। 
ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽमूद्विमृत्युः
अन्योऽप्येवं यो विदध्यात्मनेव।। 18।।

विद्या कही मृत्यु ने नचिकेता ने सीखा उसे। 
ब्रह्म मात्र का साक्षी कर अमृत प्राप्त हुआ उसे। 
निवृत्त होकर इन्द्रियों से शुद्ध जो भी मन करे। 
ध्यान कर हृद्देश में चैतन्य का दर्शन करे। 

ॐ सह नाववतु। सह नो भुनक्तु। सह वीर्यं करवाव है। तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषाव है। 
ॐशान्तिः। शान्तिः। शान्तिः। 

साथ साथ रक्षा करें पालन भी हो साथ। 
साथ साथ विद्याध्ययन करें सभी हम नाथ
हो तेजस्वी अध्ययन बढ़े हमारी कांति। 
द्वेष करें न किसी सेॐ शान्ति शांति शांति। 






















Sunday 25 October 2020

GHAZAL.. MUNAWWAR RANA.. SIYASAT KIS HUNARMANDI...

सियासत किस हुनरमंदी से सच्चाई छुपाती है ।
कि जैसे सिसकियों के ज़ख़्म शहनाई छुपाती है ।

So tactfully truth politics conceals. 
As wounds of sobs clarinet conceals 

जो इस की तह में जाता है वो फिर वापस नहीं आता। 
नदी हर तैरने वाले से गहराई छुपाती है। 

One who goes to bottom, doesn't return. 
From swimmer it's depth river conceals. 

ये बच्ची और कुछ दिन चाहती है माँ को ख़ुश रखना। 
ये कपड़ों की मदद से अपनी लंबाई छुपाती है। 

This girl wants mother to be happy a few days.
With help of clothes, height she conceals. 

GHAZAL.. JIGAR.. DIL MEN KISI KE RAAH KIYE JA RAHAA........

दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं।
कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूँ मैं। 

In someone's heart I am making a way.
What a beautiful sin is having it's say. 

गुलशनपरस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैं। 

A garde lover, flowers alone aren't dear to me. 
With me even thorns are having a say. 

यूँ ज़िन्दगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बग़ैर। 
जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं। 

As if I am committing one grave sin. 
Without you, my life is passing this way.

  न मै की आरज़ू है न साक़ी से कोई काम
आँखों से मस्त जाम पिए जा रहा हूँ मैं। 

Neither I long for wine nor wine girl's nod.
Drink from her eyes is so intoxicating to say.

फ़र्दे अमल सियाह किए जा रहा हूँ मैं। 
रहमत को बेपनाह किए जा रहा हूँ मैं। 

I am darkening man's role to such an extent. 
Almighty is boundless, appealing to say. 

 मुझ से लगे हैं इश्क़ की अज़्मत में चार चांद। 
ख़ुद हुस्न को गवाह किए जा रहा हूँ  मैं। 

Dignity of love has turned fourfold. 
Beauty in itself is witnessing the stay. 

मासूमिए जमाल पे भी जिस को रश्क हो। ऐसे भी कुछ गुनाह किए जा रहा हूँ मैं। 

Envy of simplicity of beauty it is. 
The type of sins I am commuting today. 

मुझसे अदा हुआ है 'जिगर' ज़िन्दगी का हक़। 
हर ज़र्रे को गवाह किए जा रहा हूँ मैं। 

O 'Jigar' I have played a searcher's role. 
Every grain of sand is witnessing my say. 




Tuesday 13 October 2020

कठोपनिषद... पद्यानुवाद प्रथम अध्याय व्याख्या कार स्वामी चिन्मयानन्द एवं सर्वपल्ली राधाकृष्णन ।

उशन् ह वै वाजश्रवसःसर्ववेदसं ददौ। 
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।1। 

स्वर्ग कामना हेतु कर, अपना सब कुछ दान।
वाजश्रवा के पुत्र ने किया यज्ञ अभियान।

तं ह कुमार सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु। 
श्रद्धाऽऽविवेश सोऽमन्यत  ।2।

नचिकेता ऋषिपुत्र था, श्रद्धा जगी, विचारा।
भूले मुझे अभी तक, पितु ने दान दिया न सारा।

पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् गच्छति ता ददत्।3। 

खा चुकी जो घास, दूही जा चुकीं, जल पी लिया।
जो न बच्चे दे सकें, गायों को पितु ने दे दिया।
इनसे तो आनन्दशून्य लोकों की होगी प्राप्ति। 
मैं भी हूँ, सर्वस्व दान की अभी न हुई समाप्ति।

स होवाच पितरं तत कस्मै मा दास्यसीति। 
द्वितीयं तृतीयं तं होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति ।4। 

 मुझे दान देंगे किसको, जब पूछा बारम्बार। 
यम को दिया, ऋषि ने क्रोधित होकर की  हुंकार। 

बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः। 
किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति।5। 

कुछ शिष्यों से उत्तम, कुछ से मध्यम हूँ, यह ज्ञान। 
मुझ से हो, यमदेव का कार्य पड़ा क्या आन? 

अनुपश्य यथा पूर्व प्रतिपश्य तथापरे। 
सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजयते पुनः।6। 

देखें यह ही पूर्व पुरुष कैसे करते जग में व्यवहार। 
और आज के साधुपुरुष के हैं कैसे आचार विचार। 
बीज प्रस्फुटित होता, बढ़ता, फिर हो जाता नष्ट। 
फिर से यही चक्र चलता जीवन का हुआ स्पष्ट। 
जन्म मरण का चक्र सदा चलता ही रहता तात। 
दें मुझको जाने की आज्ञा, रखें अपनी बात। 
नचिकेता चल दिया यमपुरी, देखे बंद कपाट। 
तीन दिवस और तीन रात्रि तक उसने जोही बाट। 

वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणो गृहान्। 
तस्यैतां शान्ति कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम्।7।

ब्राह्मण अतिथि गृहस्थ घरों में, करते अग्नि समान प्रवेश। 
उसी अग्नि की शांति हेतु,है सूर्य पुत्र जल का निर्देश। 

आशा प्रतीक्षा संगतं सूनृतां च इष्टापूर्ते पुत्रपशूँश्च सर्वान्। 
एतदवृङ्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्ननन्वसति ब्राह्मणो गृहे।8।

इच्छा ज्ञात अज्ञात की, इष्ट कार्य, उद्यान। 
प्रिय वाणी औ'कर्मफल संचित अब तक जान। 
अल्पबुद्धि नर, रहता जिस घर ब्राह्मण बिन आहार। 
 नष्ट करे सुत, फल, पशु पाकर यह ऐसा व्यवहार। 

तिस्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मे अनश्नन्ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्यः। 
नमस्तेऽऽस्तु ब्रह्मन्स्वस्ति मेऽस्तु तस्मात्प्रति त्रन्वरान्वृणीष्व।9। 
तीन रात्रि आहार बिन काटीं मेरे द्वार। 
आदरणीय अतिथि, अब मेरा  नमन करें स्वीकार। 
हो मेरा कल्याण, अतः मैं देता हूँ वर तीन।
एक रात्रि का एक वर, यह मेरे आधीन। 

शान्तसंकल्पः सुमना यथा स्यात् वीतमन्युर्गौतमो माभि मृत्यो ।
त्वत्प्रसृष्टं माभिवदेत्प्रतीत एतत्त्रयाणां प्रथम वरं वृणे।10। 

पहला वर दें शांत, प्रसन्नचित्त औ'क्रोध रहित हों तात। 
भेजें आप मुझे घर तो पहचानें और करें फिर बात। 

यथा पुरस्ताद्भविता प्रतीत औद्दालकिः आरुणिर्मत्प्रसृष्टः। 
सुखं रात्रीः शयिता वीतमन्युस्त्वां ददृशिवान्मृत्युमुखात्प्रमुक्तम् ।11।

शेष रात्रि होकर प्रसन्न वह शयन करे, पहचानेगा। 
गौतम, सुत को, मेरे मुख से मुक्त हुआ जब जानेगा। 

स्वर्ग लोके न भयं किंचनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति। 
उभे तीर्त्वाशनायापिपासे शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ।12।

स्वर्गलोक में आप न, वृद्धावस्था का भय हो न पास। 
शोक न भय, हैं सब प्रसन्न, न ही लगे भूख न प्यास। 

स त्वमग्निं स्वर्ग्यमध्येषि मृत्यो प्रबूहि त्वं श्रद्दधानाय मह्यम्। 
स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त एतद द्वितीयेन वृणे वरेण ।13। 

साधनभूत स्वर्ग की अग्नि, मृत्यु आपको ज्ञान। 
विवरण कर मुझको समझाएँ श्रद्धालु इक जान। 
वासी स्वर्गलोक के कैसे करें अमरता प्राप्त? 
वर द्वितीय मेरा यहीं होता आज समाप्त। 

प्र ते ब्रवीमि तदु मे निबोध स्वर्ग्यमग्निं नचिकेतः प्रजानन् ।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठा विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम्।14। 

तुम से कहूँगा अग्नि है आधार इसको जान ले। 
है बुद्धि रूपी गुहा में स्थित तू इसे पहचान ले। 
स्वर्गप्रद इस अग्नि को मैं जानता अच्छी तरह। 
हों प्राप्त लोक अनन्त जो यह जान ले अच्छी तरह। 

लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै या इष्टका यावतीर्वा यथा वा। 
स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्तमस्थास्य मृत्युःपुनरेवाह तुष्टः।15। 

कैसे कितनी किस तरह ईंट लगाई जाय। 
नचिकेता से शिष्य को कहते यम समझाय। 
कारणभूत अग्नि लोकों की विस्तृत दी बतलाय। 
जब पूछा तो, शिष्य ने सभी दिया दोहराय। 

तमब्रवीत्प्रीयमाणो महात्मा वरं तवे आद हो ददामि भूयः। 
तवैव नाम्ना भवितायमग्निः सृंकां चेमामनेकरूपां गृहाण ।16 ।

हो प्रसन्न यम ने दिया उसे एक वरदान। 
होगी तेरे नाम से अब इसकी पहचान। 
माला रूप अनेक यह तुमको करूँ प्रदान।
ग्रहण करो, जिस भाँति ली, शिक्षा अब तक जान। 

त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य संधिं छत्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू।
ब्रह्मजज्ञं देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ।17।

नाचिकेत अग्नि का तीन बार चयन कर
आचार्य माता पिता तीनों को नमन कर
स्तुति ज्ञान और दान, ब्रह्मोत्पन्न देव जान
अनुभव जो करता है, जन्म मृत्यु तरता है

त्रिणाचिकेतसत्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम्। 
स मृत्युपाशान्पुरतः प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके। 17।

इस नाचिकेत अग्नि का चयन, ज्ञान, अभ्यास । 
जो करता सो मृत्युपूर्व ही पाता स्वर्गाभास
धीरे-धीरे जो इसे करता क्रमानुसार। 
राग द्वेष अज्ञान हर खुले मोक्ष का द्वार। 

एष तेऽग्निर्नचिकेतः स्वर्ग्यो यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण ।
एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व ।19।

स्वर्ग साधनभूत अग्नि का चाहा तुमने ज्ञान। 
उसे सभी नचिकेता अग्नि कहेंगे यह लो जान। 
अब तृतीय वर मांग लो कहते यों यमराज 
मुझे प्रतिज्ञा याद है, पूर्ण करूँगा काज। 

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः। 20।

कोई कहता है रहे, मरता जो इंसान। 
नहीं रहे, कोई कहे, दें शिक्षा वरदान। 
यह संशय गंभीर है कई विरोधाभास। 
आप निवारण कीजिए यह मेरी अरदास। 

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः। 
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्। 21।

पूर्वकाल में देव भी भ्रमित रहे यह जान। 
बालक कुछ भी और तुम लेलो मुझसे ज्ञान। 
गूढ़ बहुत गंभीर है व्याख्या में यह ज्ञान।
और मांगलो तीसरा मुझसे तुम वरदान। 
परख रहे जिज्ञासु को इस प्रकार यमराज। ग्राह्यक्षमता है अगर, तो मैं कह दूँ आज। 

देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वं च मृत्यो यन्न सुविज्ञेयमात्य। 
वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित्।22।

इस समान वर है नहीं दूजा कोई तात। 
भ्रमित रहे हैं देवता भी इससे यह ज्ञात। 
वक्ता जो व्याख्या करे इसकी आप समान। 
मृत्युलोक में मिलेगा कहाँ मुझे भगवान? 

सतायुषः पुत्र पौत्रान्वृणीष्व बहून्पशून्हस्तिहिरण्यमश्वान्। 
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि। 23।

पुत्र पौत्र सौ वर्ष के लो तुम मुझसे मांग। 
हाथी घोड़े स्वर्ण भू जितनी इच्छा मांग। 
आयु तुम्हारे लिए लो चाहो जितने वर्ष। 
दे दूँगा मैं सब तुम्हें बालक आज सहर्ष। 

एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्त चिरजीविकां च।
 महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानां त्वा कामभाजं करोमि ।24।

और कोई इच्छा तेरी मन में हो, कह डाल। चिरस्थाई हो जीविका एवं भूमि विशाल। 
धन औ'सारी कामना भोगो जैसे चाह। 
दे देता हूँ वर अभी भोगो बेपरवाह। 

ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान्कामान्श्छन्दतः पार्थयस्व।
इमा रामाः सरथाः सतूर्या न हीदृशा लम्भनीयाः मनुष्यैः। 
आभिर्मतप्रत्ताभिः परिचारयस्व नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षीः। 25।

दुर्लभ मानवलोक में जितने भी हैं भोग 
रथ बाजों संग ये स्त्री मनुज सकें न भोग। 
सेवा इनसे करा ले तत्क्षण कर दूँ दान। 
प्रश्न मृत्युसंबद्ध जो अड़ो न उस पर आन। 

श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः।
अपि सर्वं जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ।26।

कल रहेंगे या नहीं ये भोग यह किसको पता? 
क्षीण करते इन्द्रियों के तेज को यह जानता। 
बहुत थोड़ा मनुज का जीवन हैं ये बस नाम के। 
प्रभु नृत्य वाहन गीत रखें ये मेरे किस काम के। 
सम्पन्न मन कैसे करेगा कामनाओं को कहो। 
हो आयु जितनी भी अधिक थोड़ी रहेगी वह प्रभो। 

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्वा।
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वस्तु मे वरणीयः स एव। 27।

कौन मनुज हो सका है अब तक धन से तृप्त? 
दर्शन कर के आपके मन न रहा अब लिप्त। 
धन व आयु तो मिलेंगे बिन मांगे ही तात। 
प्रार्थनीय वर है वही समझाएँ वह तात। 

अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन्मर्त्यः क्वधःस्थः प्रजानन्।
अभिध्यायन्वर्णरति प्रमोदान् अतिदीर्घे जीवित को रमेत। 28।

बूढ़े न हों जो देवता उन तक पहुँच कर कौन नर? 
सुख भोग जो कि अनित्य हैं उनके लिए लंबी उमर ! 
इन्द्रिय मन औ' बुद्धि से परे रहा वैराग। 
संभव यह होगा अगर हरि से है अनुराग। 

यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत् ।
योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ।29।

है या नहीं संदेह करते जिस विषय में ज्ञान दें। 
जो गहनता से ओतप्रोत वही मुझे वरदान दें। 
परलोक के ही इस विषय में चाहता मैं जानना। 
विवरण सहित समझाइए गुरुदेव यह ही कामना। 

          द्वितीय वल्ली   

अन्यच्छ्रयोऽन्यदुतैव यस्ते उभे नानार्थे पुरुषों सिनीतः। 
तयोः श्रेय आददानस्य साधुर्भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते । 1।

दो प्रकार के कर्म हैं इस जीवन के माहिं। 
दोनों नर को बाँधते भिन्न राह ले जाहिं। 
प्रेय लगे प्रिय भोग औ'है इस राह विलास।
श्रेय देत अध्यात्मसुख अंतःकरण विकास। 

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ समपरीत्य विविनक्ति धीरः ।
श्रेय हि धीरोऽभि प्रेयो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ।2।

श्रेय प्रेय दोनों ही आते हैं मानव के पास। 
इन्हें अलग कर छाँटता बुद्धिमान हर श्वास
करे श्रेय का चयन जो वह नर है सविवेक।
बुद्धिहीन नर प्रेय से सदा लगाए टेक। 

स त्वंप्रियान्प्रियरूपांश्च कामान् अभिध्यायन्नचिकेतोऽत्य स्राक्षीः।
नैतां सृंकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः ।3।

चिंतन कर तूने त्यागे प्रिय लगने वाले भोग। 
नचिकेता धनप्राया गति का बहुतेरों को रोग। 
देख तुम्हारे इस विवेक को मुझको हर्ष अपार। 
त्यागी सुन्दर नारियाँ त्यागे मुक्तक हार। 

दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता। 
विद्याभीप्सितं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त । 4।

ये जो विद्या अविद्या इनके फल विपरीत। 
इनमें है अंतर बहुत है स्वभाव विपरीत। 
इस विद्या का अभिलाषी हैतू यह मैंने जाना। 
नहीं प्रलोभन डिगा सके तूने उनको पहचाना। 

अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः। 
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमानासु यथान्धाः ।5।

गहन अविद्या में रहते हैं पंडित निज को मान। 
इच्छित गतियाँ कुटिल भटकते रहते ये इंसान। 
अंध पुरुष एक जैसे दूजे अंधे को ले जाए। 
रहें भटकते राह नहीं कोई भी दिखला पाए। 

न साम्परायः प्रतिभाति वातं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम् ।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे। 6।

अंधे जो धनमोह से करते मूर्ख प्रमाद। 
मार्ग नहीं परलोक का इनको कोई याद। 
कहते बस यह लोक है कोई न परलोक। 
मेरे बंधन में फँसे पाते हरदम शोक। 

श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृणवन्तोऽपि बहवो यं न विद्युत। 
आश्चर्यों वक्ताकुशलोऽस्य लब्धा_ऽऽश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः। 7।

जिसे समझ लें श्रवण कर यह आत्मतत्व आश्चर्य। 
आचार्य कुशल आश्चर्य है निपुण शिष्य आश्चर्य। 
सुन समझें सब अर्थ कब इसका सारे शिष्य। 
करें विवेचन गुरु करें निर्मित यहाँ भविष्य।

न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः। 
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति अणीयान्ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात्। 8।

करे आत्म का ब्रह्म से जो गुरु साक्षात्कार। वही ज्ञान को वितरण करने का रखते अधिकार। 
संशयहीन शिष्य हो जाता जब पाता यह ज्ञान। 
जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटे सुन कर यह व्याख्यान। 
 
नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रयोक्ता नैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ। 
यां त्वमायः सत्यधृतिर्बतासि त्वादृंनो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा ।9।

गुणग्राही हो शिष्य तुम नहीं तर्क का स्थान। 
ऐसे जिज्ञासु मिलें शिक्षक का अरमान। 
केवल बुद्धि विलास से इसे न जाना जाय। जिज्ञासु मन हो शुद्ध अंतःकरण यही उपाय। 

जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यतेहि ध्रुवों तत्। 
ततो मया नाचिकेतश्चितोऽग्निः अनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम् ।10।

कर्मफल की निधि अनित्य है, नित्य कैसे प्राप्त हो। 
नाचिकेत अग्नि के चयन से यमत्व मुझको प्राप्त हो। 

कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां
क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम् ।स्तोममहदुरुगायं प्रतिष्ठा दृष्ट्वा
धृत्या धीरो नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः ।11।

भोगसमाप्ति, प्रतिष्ठा जग की, यज्ञफल का अनन्तत्व। 
धैर्यपूर्वक देख कर त्यागे तूने ब्रह्मलोक 
के तत्व। 
मर्त्यलोक के प्राणी करते ब्रह्मलोक की चाह। 
वैरागी है शिष्य भावना,  कहूँ न कैसे वाह।

तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं
गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम् । 
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं
मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति ।12।

हैशरीर से प्राण तब मन, बुद्धि उससे सूक्ष्म है। 
फिर हृदयगुह स्थित आत्मा जो इससे भी सूक्ष्म है। 
बाह्यविषयों से हटा कर चित्त आत्मा में लगा। 
तो आत्मदर्शन कर सकेगा भाव जब ऐसा जगा। 

एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः
प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य ।
स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा
विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये ।13।

सुन कर समझ कर आत्मा को भिन्न जानो देह से। 
पाकर इसे आनन्द होगा अपरिमित सा स्नेह से। 
मैं मानता नचिकेता सारे खुले तेरे द्वार हैं। 
है शुद्ध अंतःकरण औ'आनन्दरूप अपार हैं। 

अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृत
अकृतात्। 
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद ।14।

धर्म अधर्म कार्य कारण व भूत भविष्य से जो परे। 
 गुरुदेव, जैसे आपने जाना वह मीमांसा  करें। 

सर्वे वेदा यत पदमामनन्ति
तपांसि सर्वाणि च यद वदन्ति। 
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं संग्रहण ब्रवीम्योमित्येतत्। 15।

आध्यात्मिक साधन पथ का दें ओम शब्द से गुरु निर्देश। 
प्रतिपादित जो करे वेद तप ब्रह्मचर्य सब का संदेश। 

एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम्। 
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ।16।

यह अक्षर ही ब्रह्म है यह अक्षर ही पर। इच्छित सब मिले यह अक्षर जान कर।

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।17।

यही श्रेष्ठ आलम्बन  हैऔर यहीं पर है आलम्बन। 
महिमान्वित हो ब्रह्मलोक में जो जाने यह
आलम्बन। 

न जायते म्रियतेवा विपश्च्चिनायं
कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
नहन्यते हन्यमाने शरीरे ।18।

यह मेधावी आत्मा न जन्मे न मरे। 
न केहि कारण जन्म ले न  ही स्वतः बने। 
नित्य पुरातन शाश्वत अज है आत्मारूप। होती मृत्यु शरीर की आत्मा रहे स्वरूप। 
 
हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं
हतश्चेन्मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो
नान्यं हन्ति न हन्यते। 19।

मरने वाला यदि मर जाता ऐसा करे विचार। 
और मारने वाला समझे मैंने डाला मार। 
भ्रमित रहे दोऊ जने मरता सिर्फ शरीर। आत्मा तो अक्षुण्ण है समझें बुद्ध प्रवीर। 

अणोरणीयान्नमहतो महीया_
नात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुः पश्यन्ति वीतशोको
धातुप्रसादान्महिमान मात्मनः ।20।

अणु से अणुतर व्यापक आत्मा रहे महान। 
हृदय गुहा में जीव के स्थित रहती यह जान। 
देखे जब निष्काम नर अंतःकरण प्रसाद। 
महिमा आत्मा की लखे रहे न शोक विषाद। 

आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति।21।

सोता हुआ सर्वत्र पहुँचे, बैठा हुआ जाए कितनी दूर। 
मदमुक्त मदयुक्त, कौन जाने देव को, बिन मेरे भरपूर। 

अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्। 
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति। 22।

तनों में तनहीन, नित्य स्वरूप अनित्यों में कहा। 
व्यापी आत्म महान जान, धीर शोक न कर  रहा। 

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन। 
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष
आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्। 23।

शास्त्र ज्ञान न धारणा न बहुत श्रवण से पाय। 
आत्मा व्रण जिसे करे उसे स्वरूप दिखाय। 

नाविरतोवृश्चरितान_
नाशान्तोनासमाहितः। 
नाशान्तमानसो वापि
प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्। 24।

पापकर्म से निवृत नहीं शान्ति न इन्द्रिय माहिं। 
चित्त शान्त और स्थिर नहीं आत्मज्ञान कब पाहिं। 

यस्य ब्रह्म च क्षत्र च उभे भवत ओदनः। 
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र 
सः। 25।

ब्राह्मण क्षत्रिय मृत्यु सब आत्मा के आहार। 
साधन हीन पुरुष इसे जाने केहि  प्रकार। 

        त्रितीय वल्ली 

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके
गुहां प्रविष्ट परमे परार्धे। 
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति
पंचाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः। 1।

परमात्मा जीवात्मा वास है हृदय गुहा में जान। 
जीवात्मा भोगे सुकर्म फल छाया धूप समान। 
चयन करें नचिकेता अग्नि जब साधक तीनों बार। 
पंचाग्नि की कर उपासना कहें फिर वही सार। 
 
यः सेतुरी जानानाम् अक्षरं ब्रह्म यत्परम्। 
अभयं तितिर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि।2।

यज्ञ हेतुनचिकेत अग्नि सेतु लिए संसार पार। 
भय रहित जो परम आश्रय ब्रह्म विद्या का कगार। 
उस ओर जाने की रही इच्छा सदा सद्पात्र में। 
यह सेतु है जो पार करने की ललक दे छात्र में। 
जीवलोक औ'स्वर्गलोक में नचिकेताग्नि है सेतु। 
श्रद्धा भक्ति एकाग्रता से चयन करने हेतु। 

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। 
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनं प्रग्रहमेव च। 3।

आत्मा रथी है शरीर रथ और बुद्धि ही है सारथी। 
मन है लगाम करे नियंत्रण योग्य बुद्धि सारथी। 

इन्द्रियाणिहयानाहुविषयांस्तेषु गोचरान्। 
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः। 4।

कहते मनीषि कि इन्द्रियाँ घोड़े विषय ही रास्ता।
मन और इन्द्रिय युक्त आत्मा ही कहाता
 भोक्ता। 
कर्मेन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ हैं अश्व इस रथ के यहाँ। 
परमात्मा साक्षी लगे जीवात्मा भोक्ता यहाँ। 
कहते मनीषि कि इन्द्रियाँ ये विषयग्राही हैं सभी। 
क्षणभंगुर जीवन के सुख दुःख छूए न आत्मा कभी। 

यस्त्वविज्ञानवान्मवत्य युक्तेन मनसा सदा। तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः। 5।

अविवेकी मानव की असंयत इन्द्रियाँ न लगाम दें। 
तो दुष्ट घोड़े विषय भोगों की तरफ लेकर बढ़ें। 

यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा। 
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः। 6।

होता विवेकी औ' समाहित चित्त तो इन्द्रिय सभी।
 वश में रहेंगे सारथी के अश्व अच्छे हों तभी। 

यस्त्वविज्ञानवान्मवत्य भवत्यमनस्कः
सदाशुचिः। 
न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति
। 7।

रखता न संयम चित्त पर अपवित्र रहता है सदा। 
परमपद पाता नहीं संसार चक्र में रह रहा।

यस्तु विज्ञानवान्भवति
समनस्कः सदा शुचिः।
स तु तदपदमाप्नोति
यस्माद्भूयो न जायते। 8।

विवेकवान पवित्र संयतचित्त नर पाते उसे। जिस जगह जाकर फिर कभी वह नर न कोई जन्म ले। 

विज्ञान सारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः। 
सोऽध्वनः परमाप्नोति तद्विष्णोःपरमं पदम्।
। 9।

कुशलबुद्धि का सारथी मन पर कर अधिकार। 
विष्णु परमपद प्राप्त हो पार करे संसार। 

इन्द्रियेभ्यः प्रा ह्यर्था
अर्थेधभ्यशच परं मनः। 
मनस स्तु प्रा बुद्धिः
बुद्धेरात्मा महान्परः। 10।

विषय श्रेष्ठ है इन्द्रियों सेऔर विषयों से मन। 
मन से श्रेष्ठबुद्धि से आत्मा यही मनीषि कथन। 

महतः परमभ्यक्तम् _
अव्यक्तात्पुरुषः परः। 
पुरुषान्न परं किंचित्सा
काष्ठा सा प्रा गतिः। 11।

महत्तत्व से मूलप्रकृति परा अव्यक्त है जिसकी गति। 
अव्यक्त से है पुरुष श्रेष्ठ उससे परे न कोई गति। 

एष सर्वेषु भूतेषु
गूढोत्मान प्रकाशते ।
दृश्यते त्वग्रयाबुद्ध्या
सूक्ष्मता सूक्ष्मदर्शिभिः। 12।

सम्पूर्ण भूतों में छिपा यह आत्मा न प्रकाशमान। 
आचार्य जो हैं सूक्ष्मदर्शी देखते जो विचारवान। 

यच्छेद्वांमनसो प्राज्ञस्तद् _
यच्छेज्ज्ञान आत्मनि ।
ज्ञानमात्मनि महति निय_
च्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि। 13।

इन्द्रियों को मन में मन को बुद्धि में करे लीन। 
महत्तत्व में बुद्धि उसे शान्तात्मा में तल्लीन। 

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। 
क्षुरस्य धारा निशिता दुरस्त्यया दुर्गं
पतस्ततकवयोवदन्ति ।14।

उठो जागो श्रेष्ठ पुरुषों से निरन्तर ज्ञान लो। 
दुर्गम पथ है धार छुरे की सी इसे जान लो। 

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं
तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं

महत्त्त्वसे परे हैआत्मा गन्ध विहीन। 
है अनन्त और अनादि स्पर्शहीन रसहीन। 
निश्चल नित्य अशब्द हैअव्यय और अरूप। 
इसे जान कर मृत्यु मुख से छूटे नर रूप। 

नाचिकेतमुपाख्यानं मृत्युप्रोक्तं सनातनम्।
उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीपते
। 16।

धर्मराज ने नचिकेता को दिया सनातन ज्ञान। 
सुनता रहे करे मनन सो नर बुद्धिमान। 
ध्यान से व विवेक से करता रहे विचार। 
उसके लिए खुले रहेंगे ये सारे द्वार। 

य इमं परमं गुह्यंश्रावयेद् ब्रह्मसंसदि।
प्रयतः श्राद्धकाल वा तदानन्त्याय कल्पते। तदानन्त्याय कल्पत इति। 17।

हो पवित्र ब्राह्मण सभा में जो करता पाठ।
श्राद्ध काल में सुनाए परम गुह्य यह पाठ। 
उन्नत फल होगा सदा उसी श्राद्ध को प्राप्त। 
प्रथमाध्याय उपनिषद का होता यहाँ समाप्त। 
ज्ञानजन्य आनन्द दें रक्षा करते साथ। 
विद्यार्थी तेजस्वि हों द्वेष करें न नाथ। 
ॐ शान्ति! शान्ति!! शान्ति!!! 

























Sunday 11 October 2020

GHAZAL.. AHMAD FARAZ.. AANKH SE DOOR N JA, DIL..

आँख से दूर न जा, दिल से उतर जाएगा।

वक़्त का क्या है, गुज़रता है गुज़र जाएगा।

Don't get out of sight, from mind 'll bypass.

Why bother about time, it passes, will pass. 

इतना मानूस न हो, ख़ल्वते ग़म से अपनी। 
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा, तो डर जाएगा। 

Don't be so intimate with privacy of sorrows.

You may be afraid of the self, in looking glass. 

डूबते-डूबते, कश्ती को उछाला दे दूँ। 

मैं नहीं, कोई तो साहिल पे उतर जाएगा। 

Before drowning, let me bounce the ship. 

Not I, but someone will reach shore mass. 


ज़िन्दगी तेरी अता है, तो ये जाने वाला। 

तेरी बख़्शिश, तिरी दहलीज़ पे धर जाएगा। 

Life is your gift, while parting, he will 

Lay the present on doorstep,'n surpass. 

 ज़ब्त लाज़िम है, मगर दु:ख है कयामत का 'फ़राज़'। 

ज़ालिम अब के भी न रोएगा, तो मर जाएगा। 

Self control of course but pain is intense 'Faraz'. 

If he does not cry, he'll go under grass. 

Wednesday 7 October 2020

SAHIR.. GHAZAL.. HAR TARAH KE JAZBAAT KA ELAN.....

Har tarah ke jazbaat ka elaan hain aankhen.

Shabnam kabhi shola kabhi toofaan hain aankhen.

Every kind of emotion is notified by eyes. 

Flash, dew, tempest are classified by eyes. 

Aankhon se baDi koi taraazu nahin hotee. 

Tulta hai bashar jis men vo meezaan hain aankhen. 

No balance  bigger than the eyes exists. 

Scale weighing humans is specified by eyes. 

Aankhen hi milaati hain zamaane men dilon ko. 

Anjaan hain hum tum, agar  anjaan hain aankhen. 

Eyes bring hearts closer in this world. 

We willl be strangers, till unified by eyes. 

Lab kuchh bhi kahen, is se haqeeqat nahin khultee. 

Insaan ke such jhoot ki pahchaan hain aankhen. 

Whatever lips say, truth is'nt revealed. 

Human truth and  lie are verified by eyes. 

Aankhen na jhukin teri kisee ghair ke aage. 

Duniya men baDi cheez meri jaan hain aankhen. 

That your eyes didn't succumb before rival. 

My love in this world is certified by eyes. 


Monday 5 October 2020

MOMIN.. GHAZAL.. VO JO HUM MEN TUM MEN QARAAR THA..

वो जो हम में तुम में क़रार था, तुम्हें याद हो कि न याद हो।

वही या' नी वा' दा निबाह का, तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

That agreement between I and you, whether or not you recall.

O yes, the promise of carrying through, whether or not you recall. 

वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे बेशतर, वो करम कि था मिरे हाल पर। 

मुझे सब है याद ज़रा ज़रा, तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

Pleasure that you gave O mate, grace bestowed on my state! 

Bit by bit it's all I know, whether or not you recall. 

वो नए गिले वो शिकायतें, वो मज़े मज़े की हिकायतें। 

वो हरेक बात पे रूठना, तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

That new blame, the complaint game, pleasant tales worth the name. 

For all I knew, your angry hue, whether or not you recall. 

कभी बैठे सब में जो रू-ब-रू, तो इशारतों ही से गुफ़्तगू। 

वो बयान शौक़ का बरमला, तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

In crowd sitting face to face, talking with the hints on face. 

That ardour, zeal in public view, whether or not you recall. 

हुए इत्तफ़ाक़ से गर बहम, तो वफ़ा जताने को दम ब दम। 

गिला-ए-मलामत-ए-अक़रिबा, तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

Coming together if per chance, constant faith in every stance. 

Kins complaining just anew, whether or not you recall. 

कोई बात ऐसी अगर हुई, कि तुम्हारे जी को बुरी लगी। 

तो बयाँ से पहले ही भूलना, तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

If something happened to be, that made you feel uneasy. 

To forget before lips gave clue, whether or not you recall.


कभी हम में तुम में भी चाह थी,  कभी हम से तुम से भी राह थी। 

कभी हम भी तुम भी थे आश्ना, तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

I'n you had liked someday, the two of us had common way. 

 Between us love could persue, whether or not you recall. 

सुनो ज़िक्र है कई साल का, कि किया इक आप ने वा'दा था। 

सो निबाहने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

Please note that some years ago, you had given me a vow. 

How to say going along is due, 
Whether or not you recall. 

वो बिगड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का। 

वो नहीं नहीं की हर आन अदा, तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

Your anger on  meeting night, not agreeing however slight. 

Sweet gesture of no  to continue, whether or not you recall. 

जिसे आप गिनते थे आश्ना, जिसे आप कहते थे बा-वफ़ा। 

मैं वही हूँ 'मोमिन' - ए-मुब्तिला, तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

You had loved me as your own, my loyalty was well known. 

I'm 'Momin' the obsessed your's true, whether or not you recall. 











Saturday 3 October 2020

कुछ मुक्तक..... रवि मौन

चित्रकार है कौन कि जिस ने, नभ पर रंग बिखेरे?
नीली पृष्ठभूमि पर, बादल विविध रूप, बहुतेरे। 
सूरज अपना तेज लिए, दिन भर प्रकाश फैलाता। 
चाँद और तारों की चादर, बिछती रात घनेरे।। 

इक चपटे कंकर से झुक कर, जोहड़ तल पर किया प्रहार। 
फेंकी इस प्रकार, मैं देखूँ तो, यह उछले कितनी बार। 
प्रमुदित बाल सुलभ मन होता, कई बार उछली जाना। 
सोचा नहीं कि जोहड़ ने, इस से पाया है कष्ट अपार।। 

हवा चल रही है तेज़ी से, साँय साँय ध्वनि आती ।
झूम झूम कर पत्ते हिलते, डाली है लहराती। 
नन्हीं नन्हीं बूँद गिर रहीं, मतवाला है मौसम। 
इस मौसम में स्वाभाविक है, याद तुम्हारी आती। 

रूठा है छोटा सा बालक, माँ से जाता दूर ।इच्छा है माँ उसे मनाए, प्यार करे भरपूर ।
माँ भी चली जा रही, पीछे चाहे उसे मनाऊँ । 
माँ बालक के प्रेम दृश्य पर, मन करता बलि जाऊँ ।।

भूख लगी बच्चे कहते हैं, पेड़ों से कलरव ध्वनि आई। 
छोड़ घोंसलों में बच्चों को, खग नभ में देते दिखलाई। 
किस का कौन निवाला होगा, यह सब तो है भाग्याधीन। 
किन्तु प्रयास सभी को करना है यह बात समझ में आई। 

रजत जयंती आ गई होता नहीं यकीन। 
बीस बरस के लग रहे दोनों जवाँ हसीन। 
बच्चो अपने आप पर रखना यह कंट्रोल ।
स्वर्ण जयंती आ रहे खुले न अपनी पोल ।
हीरक आए जयंती बच्चों को आशीश। 
ऐडी वैडी को मिले ज्ञान सुधा बख़्शीश ।
(टुन्नू टिन्नी को मिले ज्ञान सुधा बख़्शीश) 

बाल खिचड़ी हो गए तो क्या हुआ? 
है मुरव्वत तो वही महबूब की। 
साथ बरसों का रहा है जाने जाँ। 
तुमने भी उल्फ़त निभाई, ख़ूब की ।