उशन् ह वै वाजश्रवसःसर्ववेदसं ददौ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।1।
स्वर्ग कामना हेतु कर, अपना सब कुछ दान।
वाजश्रवा के पुत्र ने किया यज्ञ अभियान।
तं ह कुमार सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु।
श्रद्धाऽऽविवेश सोऽमन्यत ।2।
नचिकेता ऋषिपुत्र था, श्रद्धा जगी, विचारा।
भूले मुझे अभी तक, पितु ने दान दिया न सारा।
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् गच्छति ता ददत्।3।
खा चुकी जो घास, दूही जा चुकीं, जल पी लिया।
जो न बच्चे दे सकें, गायों को पितु ने दे दिया।
इनसे तो आनन्दशून्य लोकों की होगी प्राप्ति।
मैं भी हूँ, सर्वस्व दान की अभी न हुई समाप्ति।
स होवाच पितरं तत कस्मै मा दास्यसीति।
द्वितीयं तृतीयं तं होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति ।4।
मुझे दान देंगे किसको, जब पूछा बारम्बार।
यम को दिया, ऋषि ने क्रोधित होकर की हुंकार।
बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः।
किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति।5।
कुछ शिष्यों से उत्तम, कुछ से मध्यम हूँ, यह ज्ञान।
मुझ से हो, यमदेव का कार्य पड़ा क्या आन?
अनुपश्य यथा पूर्व प्रतिपश्य तथापरे।
सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजयते पुनः।6।
देखें यह ही पूर्व पुरुष कैसे करते जग में व्यवहार।
और आज के साधुपुरुष के हैं कैसे आचार विचार।
बीज प्रस्फुटित होता, बढ़ता, फिर हो जाता नष्ट।
फिर से यही चक्र चलता जीवन का हुआ स्पष्ट।
जन्म मरण का चक्र सदा चलता ही रहता तात।
दें मुझको जाने की आज्ञा, रखें अपनी बात।
नचिकेता चल दिया यमपुरी, देखे बंद कपाट।
तीन दिवस और तीन रात्रि तक उसने जोही बाट।
वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणो गृहान्।
तस्यैतां शान्ति कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम्।7।
ब्राह्मण अतिथि गृहस्थ घरों में, करते अग्नि समान प्रवेश।
उसी अग्नि की शांति हेतु,है सूर्य पुत्र जल का निर्देश।
आशा प्रतीक्षा संगतं सूनृतां च इष्टापूर्ते पुत्रपशूँश्च सर्वान्।
एतदवृङ्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्ननन्वसति ब्राह्मणो गृहे।8।
इच्छा ज्ञात अज्ञात की, इष्ट कार्य, उद्यान।
प्रिय वाणी औ'कर्मफल संचित अब तक जान।
अल्पबुद्धि नर, रहता जिस घर ब्राह्मण बिन आहार।
नष्ट करे सुत, फल, पशु पाकर यह ऐसा व्यवहार।
तिस्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मे अनश्नन्ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्यः।
नमस्तेऽऽस्तु ब्रह्मन्स्वस्ति मेऽस्तु तस्मात्प्रति त्रन्वरान्वृणीष्व।9।
तीन रात्रि आहार बिन काटीं मेरे द्वार।
आदरणीय अतिथि, अब मेरा नमन करें स्वीकार।
हो मेरा कल्याण, अतः मैं देता हूँ वर तीन।
एक रात्रि का एक वर, यह मेरे आधीन।
शान्तसंकल्पः सुमना यथा स्यात् वीतमन्युर्गौतमो माभि मृत्यो ।
त्वत्प्रसृष्टं माभिवदेत्प्रतीत एतत्त्रयाणां प्रथम वरं वृणे।10।
पहला वर दें शांत, प्रसन्नचित्त औ'क्रोध रहित हों तात।
भेजें आप मुझे घर तो पहचानें और करें फिर बात।
यथा पुरस्ताद्भविता प्रतीत औद्दालकिः आरुणिर्मत्प्रसृष्टः।
सुखं रात्रीः शयिता वीतमन्युस्त्वां ददृशिवान्मृत्युमुखात्प्रमुक्तम् ।11।
शेष रात्रि होकर प्रसन्न वह शयन करे, पहचानेगा।
गौतम, सुत को, मेरे मुख से मुक्त हुआ जब जानेगा।
स्वर्ग लोके न भयं किंचनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति।
उभे तीर्त्वाशनायापिपासे शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ।12।
स्वर्गलोक में आप न, वृद्धावस्था का भय हो न पास।
शोक न भय, हैं सब प्रसन्न, न ही लगे भूख न प्यास।
स त्वमग्निं स्वर्ग्यमध्येषि मृत्यो प्रबूहि त्वं श्रद्दधानाय मह्यम्।
स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त एतद द्वितीयेन वृणे वरेण ।13।
साधनभूत स्वर्ग की अग्नि, मृत्यु आपको ज्ञान।
विवरण कर मुझको समझाएँ श्रद्धालु इक जान।
वासी स्वर्गलोक के कैसे करें अमरता प्राप्त?
वर द्वितीय मेरा यहीं होता आज समाप्त।
प्र ते ब्रवीमि तदु मे निबोध स्वर्ग्यमग्निं नचिकेतः प्रजानन् ।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठा विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम्।14।
तुम से कहूँगा अग्नि है आधार इसको जान ले।
है बुद्धि रूपी गुहा में स्थित तू इसे पहचान ले।
स्वर्गप्रद इस अग्नि को मैं जानता अच्छी तरह।
हों प्राप्त लोक अनन्त जो यह जान ले अच्छी तरह।
लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै या इष्टका यावतीर्वा यथा वा।
स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्तमस्थास्य मृत्युःपुनरेवाह तुष्टः।15।
कैसे कितनी किस तरह ईंट लगाई जाय।
नचिकेता से शिष्य को कहते यम समझाय।
कारणभूत अग्नि लोकों की विस्तृत दी बतलाय।
जब पूछा तो, शिष्य ने सभी दिया दोहराय।
तमब्रवीत्प्रीयमाणो महात्मा वरं तवे आद हो ददामि भूयः।
तवैव नाम्ना भवितायमग्निः सृंकां चेमामनेकरूपां गृहाण ।16 ।
हो प्रसन्न यम ने दिया उसे एक वरदान।
होगी तेरे नाम से अब इसकी पहचान।
माला रूप अनेक यह तुमको करूँ प्रदान।
ग्रहण करो, जिस भाँति ली, शिक्षा अब तक जान।
त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य संधिं छत्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू।
ब्रह्मजज्ञं देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ।17।
नाचिकेत अग्नि का तीन बार चयन कर
आचार्य माता पिता तीनों को नमन कर
स्तुति ज्ञान और दान, ब्रह्मोत्पन्न देव जान
अनुभव जो करता है, जन्म मृत्यु तरता है
त्रिणाचिकेतसत्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम्।
स मृत्युपाशान्पुरतः प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके। 17।
इस नाचिकेत अग्नि का चयन, ज्ञान, अभ्यास ।
जो करता सो मृत्युपूर्व ही पाता स्वर्गाभास
धीरे-धीरे जो इसे करता क्रमानुसार।
राग द्वेष अज्ञान हर खुले मोक्ष का द्वार।
एष तेऽग्निर्नचिकेतः स्वर्ग्यो यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण ।
एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व ।19।
स्वर्ग साधनभूत अग्नि का चाहा तुमने ज्ञान।
उसे सभी नचिकेता अग्नि कहेंगे यह लो जान।
अब तृतीय वर मांग लो कहते यों यमराज
मुझे प्रतिज्ञा याद है, पूर्ण करूँगा काज।
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः। 20।
कोई कहता है रहे, मरता जो इंसान।
नहीं रहे, कोई कहे, दें शिक्षा वरदान।
यह संशय गंभीर है कई विरोधाभास।
आप निवारण कीजिए यह मेरी अरदास।
देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः।
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्। 21।
पूर्वकाल में देव भी भ्रमित रहे यह जान।
बालक कुछ भी और तुम लेलो मुझसे ज्ञान।
गूढ़ बहुत गंभीर है व्याख्या में यह ज्ञान।
और मांगलो तीसरा मुझसे तुम वरदान।
परख रहे जिज्ञासु को इस प्रकार यमराज। ग्राह्यक्षमता है अगर, तो मैं कह दूँ आज।
देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वं च मृत्यो यन्न सुविज्ञेयमात्य।
वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित्।22।
इस समान वर है नहीं दूजा कोई तात।
भ्रमित रहे हैं देवता भी इससे यह ज्ञात।
वक्ता जो व्याख्या करे इसकी आप समान।
मृत्युलोक में मिलेगा कहाँ मुझे भगवान?
सतायुषः पुत्र पौत्रान्वृणीष्व बहून्पशून्हस्तिहिरण्यमश्वान्।
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि। 23।
पुत्र पौत्र सौ वर्ष के लो तुम मुझसे मांग।
हाथी घोड़े स्वर्ण भू जितनी इच्छा मांग।
आयु तुम्हारे लिए लो चाहो जितने वर्ष।
दे दूँगा मैं सब तुम्हें बालक आज सहर्ष।
एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्त चिरजीविकां च।
महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानां त्वा कामभाजं करोमि ।24।
और कोई इच्छा तेरी मन में हो, कह डाल। चिरस्थाई हो जीविका एवं भूमि विशाल।
धन औ'सारी कामना भोगो जैसे चाह।
दे देता हूँ वर अभी भोगो बेपरवाह।
ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान्कामान्श्छन्दतः पार्थयस्व।
इमा रामाः सरथाः सतूर्या न हीदृशा लम्भनीयाः मनुष्यैः।
आभिर्मतप्रत्ताभिः परिचारयस्व नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षीः। 25।
दुर्लभ मानवलोक में जितने भी हैं भोग
रथ बाजों संग ये स्त्री मनुज सकें न भोग।
सेवा इनसे करा ले तत्क्षण कर दूँ दान।
प्रश्न मृत्युसंबद्ध जो अड़ो न उस पर आन।
श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः।
अपि सर्वं जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ।26।
कल रहेंगे या नहीं ये भोग यह किसको पता?
क्षीण करते इन्द्रियों के तेज को यह जानता।
बहुत थोड़ा मनुज का जीवन हैं ये बस नाम के।
प्रभु नृत्य वाहन गीत रखें ये मेरे किस काम के।
सम्पन्न मन कैसे करेगा कामनाओं को कहो।
हो आयु जितनी भी अधिक थोड़ी रहेगी वह प्रभो।
न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्वा।
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वस्तु मे वरणीयः स एव। 27।
कौन मनुज हो सका है अब तक धन से तृप्त?
दर्शन कर के आपके मन न रहा अब लिप्त।
धन व आयु तो मिलेंगे बिन मांगे ही तात।
प्रार्थनीय वर है वही समझाएँ वह तात।
अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन्मर्त्यः क्वधःस्थः प्रजानन्।
अभिध्यायन्वर्णरति प्रमोदान् अतिदीर्घे जीवित को रमेत। 28।
बूढ़े न हों जो देवता उन तक पहुँच कर कौन नर?
सुख भोग जो कि अनित्य हैं उनके लिए लंबी उमर !
इन्द्रिय मन औ' बुद्धि से परे रहा वैराग।
संभव यह होगा अगर हरि से है अनुराग।
यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत् ।
योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ।29।
है या नहीं संदेह करते जिस विषय में ज्ञान दें।
जो गहनता से ओतप्रोत वही मुझे वरदान दें।
परलोक के ही इस विषय में चाहता मैं जानना।
विवरण सहित समझाइए गुरुदेव यह ही कामना।
द्वितीय वल्ली
अन्यच्छ्रयोऽन्यदुतैव यस्ते उभे नानार्थे पुरुषों सिनीतः।
तयोः श्रेय आददानस्य साधुर्भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते । 1।
दो प्रकार के कर्म हैं इस जीवन के माहिं।
दोनों नर को बाँधते भिन्न राह ले जाहिं।
प्रेय लगे प्रिय भोग औ'है इस राह विलास।
श्रेय देत अध्यात्मसुख अंतःकरण विकास।
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ समपरीत्य विविनक्ति धीरः ।
श्रेय हि धीरोऽभि प्रेयो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ।2।
श्रेय प्रेय दोनों ही आते हैं मानव के पास।
इन्हें अलग कर छाँटता बुद्धिमान हर श्वास
करे श्रेय का चयन जो वह नर है सविवेक।
बुद्धिहीन नर प्रेय से सदा लगाए टेक।
स त्वंप्रियान्प्रियरूपांश्च कामान् अभिध्यायन्नचिकेतोऽत्य स्राक्षीः।
नैतां सृंकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः ।3।
चिंतन कर तूने त्यागे प्रिय लगने वाले भोग।
नचिकेता धनप्राया गति का बहुतेरों को रोग।
देख तुम्हारे इस विवेक को मुझको हर्ष अपार।
त्यागी सुन्दर नारियाँ त्यागे मुक्तक हार।
दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
विद्याभीप्सितं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त । 4।
ये जो विद्या अविद्या इनके फल विपरीत।
इनमें है अंतर बहुत है स्वभाव विपरीत।
इस विद्या का अभिलाषी हैतू यह मैंने जाना।
नहीं प्रलोभन डिगा सके तूने उनको पहचाना।
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमानासु यथान्धाः ।5।
गहन अविद्या में रहते हैं पंडित निज को मान।
इच्छित गतियाँ कुटिल भटकते रहते ये इंसान।
अंध पुरुष एक जैसे दूजे अंधे को ले जाए।
रहें भटकते राह नहीं कोई भी दिखला पाए।
न साम्परायः प्रतिभाति वातं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम् ।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे। 6।
अंधे जो धनमोह से करते मूर्ख प्रमाद।
मार्ग नहीं परलोक का इनको कोई याद।
कहते बस यह लोक है कोई न परलोक।
मेरे बंधन में फँसे पाते हरदम शोक।
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृणवन्तोऽपि बहवो यं न विद्युत।
आश्चर्यों वक्ताकुशलोऽस्य लब्धा_ऽऽश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः। 7।
जिसे समझ लें श्रवण कर यह आत्मतत्व आश्चर्य।
आचार्य कुशल आश्चर्य है निपुण शिष्य आश्चर्य।
सुन समझें सब अर्थ कब इसका सारे शिष्य।
करें विवेचन गुरु करें निर्मित यहाँ भविष्य।
न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति अणीयान्ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात्। 8।
करे आत्म का ब्रह्म से जो गुरु साक्षात्कार। वही ज्ञान को वितरण करने का रखते अधिकार।
संशयहीन शिष्य हो जाता जब पाता यह ज्ञान।
जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटे सुन कर यह व्याख्यान।
नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रयोक्ता नैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।
यां त्वमायः सत्यधृतिर्बतासि त्वादृंनो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा ।9।
गुणग्राही हो शिष्य तुम नहीं तर्क का स्थान।
ऐसे जिज्ञासु मिलें शिक्षक का अरमान।
केवल बुद्धि विलास से इसे न जाना जाय। जिज्ञासु मन हो शुद्ध अंतःकरण यही उपाय।
जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यतेहि ध्रुवों तत्।
ततो मया नाचिकेतश्चितोऽग्निः अनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम् ।10।
कर्मफल की निधि अनित्य है, नित्य कैसे प्राप्त हो।
नाचिकेत अग्नि के चयन से यमत्व मुझको प्राप्त हो।
कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां
क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम् ।स्तोममहदुरुगायं प्रतिष्ठा दृष्ट्वा
धृत्या धीरो नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः ।11।
भोगसमाप्ति, प्रतिष्ठा जग की, यज्ञफल का अनन्तत्व।
धैर्यपूर्वक देख कर त्यागे तूने ब्रह्मलोक
के तत्व।
मर्त्यलोक के प्राणी करते ब्रह्मलोक की चाह।
वैरागी है शिष्य भावना, कहूँ न कैसे वाह।
तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं
गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम् ।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं
मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति ।12।
हैशरीर से प्राण तब मन, बुद्धि उससे सूक्ष्म है।
फिर हृदयगुह स्थित आत्मा जो इससे भी सूक्ष्म है।
बाह्यविषयों से हटा कर चित्त आत्मा में लगा।
तो आत्मदर्शन कर सकेगा भाव जब ऐसा जगा।
एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः
प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य ।
स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा
विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये ।13।
सुन कर समझ कर आत्मा को भिन्न जानो देह से।
पाकर इसे आनन्द होगा अपरिमित सा स्नेह से।
मैं मानता नचिकेता सारे खुले तेरे द्वार हैं।
है शुद्ध अंतःकरण औ'आनन्दरूप अपार हैं।
अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृत
अकृतात्।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद ।14।
धर्म अधर्म कार्य कारण व भूत भविष्य से जो परे।
गुरुदेव, जैसे आपने जाना वह मीमांसा करें।
सर्वे वेदा यत पदमामनन्ति
तपांसि सर्वाणि च यद वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं संग्रहण ब्रवीम्योमित्येतत्। 15।
आध्यात्मिक साधन पथ का दें ओम शब्द से गुरु निर्देश।
प्रतिपादित जो करे वेद तप ब्रह्मचर्य सब का संदेश।
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम्।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ।16।
यह अक्षर ही ब्रह्म है यह अक्षर ही पर। इच्छित सब मिले यह अक्षर जान कर।
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।17।
यही श्रेष्ठ आलम्बन हैऔर यहीं पर है आलम्बन।
महिमान्वित हो ब्रह्मलोक में जो जाने यह
आलम्बन।
न जायते म्रियतेवा विपश्च्चिनायं
कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
नहन्यते हन्यमाने शरीरे ।18।
यह मेधावी आत्मा न जन्मे न मरे।
न केहि कारण जन्म ले न ही स्वतः बने।
नित्य पुरातन शाश्वत अज है आत्मारूप। होती मृत्यु शरीर की आत्मा रहे स्वरूप।
हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं
हतश्चेन्मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो
नान्यं हन्ति न हन्यते। 19।
मरने वाला यदि मर जाता ऐसा करे विचार।
और मारने वाला समझे मैंने डाला मार।
भ्रमित रहे दोऊ जने मरता सिर्फ शरीर। आत्मा तो अक्षुण्ण है समझें बुद्ध प्रवीर।
अणोरणीयान्नमहतो महीया_
नात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुः पश्यन्ति वीतशोको
धातुप्रसादान्महिमान मात्मनः ।20।
अणु से अणुतर व्यापक आत्मा रहे महान।
हृदय गुहा में जीव के स्थित रहती यह जान।
देखे जब निष्काम नर अंतःकरण प्रसाद।
महिमा आत्मा की लखे रहे न शोक विषाद।
आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति।21।
सोता हुआ सर्वत्र पहुँचे, बैठा हुआ जाए कितनी दूर।
मदमुक्त मदयुक्त, कौन जाने देव को, बिन मेरे भरपूर।
अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति। 22।
तनों में तनहीन, नित्य स्वरूप अनित्यों में कहा।
व्यापी आत्म महान जान, धीर शोक न कर रहा।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष
आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्। 23।
शास्त्र ज्ञान न धारणा न बहुत श्रवण से पाय।
आत्मा व्रण जिसे करे उसे स्वरूप दिखाय।
नाविरतोवृश्चरितान_
नाशान्तोनासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि
प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्। 24।
पापकर्म से निवृत नहीं शान्ति न इन्द्रिय माहिं।
चित्त शान्त और स्थिर नहीं आत्मज्ञान कब पाहिं।
यस्य ब्रह्म च क्षत्र च उभे भवत ओदनः।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र
सः। 25।
ब्राह्मण क्षत्रिय मृत्यु सब आत्मा के आहार।
साधन हीन पुरुष इसे जाने केहि प्रकार।
त्रितीय वल्ली
ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके
गुहां प्रविष्ट परमे परार्धे।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति
पंचाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः। 1।
परमात्मा जीवात्मा वास है हृदय गुहा में जान।
जीवात्मा भोगे सुकर्म फल छाया धूप समान।
चयन करें नचिकेता अग्नि जब साधक तीनों बार।
पंचाग्नि की कर उपासना कहें फिर वही सार।
यः सेतुरी जानानाम् अक्षरं ब्रह्म यत्परम्।
अभयं तितिर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि।2।
यज्ञ हेतुनचिकेत अग्नि सेतु लिए संसार पार।
भय रहित जो परम आश्रय ब्रह्म विद्या का कगार।
उस ओर जाने की रही इच्छा सदा सद्पात्र में।
यह सेतु है जो पार करने की ललक दे छात्र में।
जीवलोक औ'स्वर्गलोक में नचिकेताग्नि है सेतु।
श्रद्धा भक्ति एकाग्रता से चयन करने हेतु।
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनं प्रग्रहमेव च। 3।
आत्मा रथी है शरीर रथ और बुद्धि ही है सारथी।
मन है लगाम करे नियंत्रण योग्य बुद्धि सारथी।
इन्द्रियाणिहयानाहुविषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः। 4।
कहते मनीषि कि इन्द्रियाँ घोड़े विषय ही रास्ता।
मन और इन्द्रिय युक्त आत्मा ही कहाता
भोक्ता।
कर्मेन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ हैं अश्व इस रथ के यहाँ।
परमात्मा साक्षी लगे जीवात्मा भोक्ता यहाँ।
कहते मनीषि कि इन्द्रियाँ ये विषयग्राही हैं सभी।
क्षणभंगुर जीवन के सुख दुःख छूए न आत्मा कभी।
यस्त्वविज्ञानवान्मवत्य युक्तेन मनसा सदा। तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः। 5।
अविवेकी मानव की असंयत इन्द्रियाँ न लगाम दें।
तो दुष्ट घोड़े विषय भोगों की तरफ लेकर बढ़ें।
यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः। 6।
होता विवेकी औ' समाहित चित्त तो इन्द्रिय सभी।
वश में रहेंगे सारथी के अश्व अच्छे हों तभी।
यस्त्वविज्ञानवान्मवत्य भवत्यमनस्कः
सदाशुचिः।
न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति
। 7।
रखता न संयम चित्त पर अपवित्र रहता है सदा।
परमपद पाता नहीं संसार चक्र में रह रहा।
यस्तु विज्ञानवान्भवति
समनस्कः सदा शुचिः।
स तु तदपदमाप्नोति
यस्माद्भूयो न जायते। 8।
विवेकवान पवित्र संयतचित्त नर पाते उसे। जिस जगह जाकर फिर कभी वह नर न कोई जन्म ले।
विज्ञान सारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः।
सोऽध्वनः परमाप्नोति तद्विष्णोःपरमं पदम्।
। 9।
कुशलबुद्धि का सारथी मन पर कर अधिकार।
विष्णु परमपद प्राप्त हो पार करे संसार।
इन्द्रियेभ्यः प्रा ह्यर्था
अर्थेधभ्यशच परं मनः।
मनस स्तु प्रा बुद्धिः
बुद्धेरात्मा महान्परः। 10।
विषय श्रेष्ठ है इन्द्रियों सेऔर विषयों से मन।
मन से श्रेष्ठबुद्धि से आत्मा यही मनीषि कथन।
महतः परमभ्यक्तम् _
अव्यक्तात्पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किंचित्सा
काष्ठा सा प्रा गतिः। 11।
महत्तत्व से मूलप्रकृति परा अव्यक्त है जिसकी गति।
अव्यक्त से है पुरुष श्रेष्ठ उससे परे न कोई गति।
एष सर्वेषु भूतेषु
गूढोत्मान प्रकाशते ।
दृश्यते त्वग्रयाबुद्ध्या
सूक्ष्मता सूक्ष्मदर्शिभिः। 12।
सम्पूर्ण भूतों में छिपा यह आत्मा न प्रकाशमान।
आचार्य जो हैं सूक्ष्मदर्शी देखते जो विचारवान।
यच्छेद्वांमनसो प्राज्ञस्तद् _
यच्छेज्ज्ञान आत्मनि ।
ज्ञानमात्मनि महति निय_
च्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि। 13।
इन्द्रियों को मन में मन को बुद्धि में करे लीन।
महत्तत्व में बुद्धि उसे शान्तात्मा में तल्लीन।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरस्त्यया दुर्गं
पतस्ततकवयोवदन्ति ।14।
उठो जागो श्रेष्ठ पुरुषों से निरन्तर ज्ञान लो।
दुर्गम पथ है धार छुरे की सी इसे जान लो।
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं
तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं
महत्त्त्वसे परे हैआत्मा गन्ध विहीन।
है अनन्त और अनादि स्पर्शहीन रसहीन।
निश्चल नित्य अशब्द हैअव्यय और अरूप।
इसे जान कर मृत्यु मुख से छूटे नर रूप।
नाचिकेतमुपाख्यानं मृत्युप्रोक्तं सनातनम्।
उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीपते
। 16।
धर्मराज ने नचिकेता को दिया सनातन ज्ञान।
सुनता रहे करे मनन सो नर बुद्धिमान।
ध्यान से व विवेक से करता रहे विचार।
उसके लिए खुले रहेंगे ये सारे द्वार।
य इमं परमं गुह्यंश्रावयेद् ब्रह्मसंसदि।
प्रयतः श्राद्धकाल वा तदानन्त्याय कल्पते। तदानन्त्याय कल्पत इति। 17।
हो पवित्र ब्राह्मण सभा में जो करता पाठ।
श्राद्ध काल में सुनाए परम गुह्य यह पाठ।
उन्नत फल होगा सदा उसी श्राद्ध को प्राप्त।
प्रथमाध्याय उपनिषद का होता यहाँ समाप्त।
ज्ञानजन्य आनन्द दें रक्षा करते साथ।
विद्यार्थी तेजस्वि हों द्वेष करें न नाथ।
ॐ शान्ति! शान्ति!! शान्ति!!!