Wednesday 14 February 2024

पञ्चश्लोकिगणेश पुराणम्


श्रीविघ्नेशपुराणसारमुदितं व्यावसाय धात्रा पुरा
तत्खण्डं प्रथम महागणपतेश्चोपासनाख्यं यथा। 
संहर्तुं त्रिपुर शिवेन गणपस्यादौ कृतं पूजनं
कर्तुं सृष्टिमिमां वस्तुतः स विधिना व्यासेन बुद्ध्याप्तये।। १।।

पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने व्यास ऋषि को बताया।
श्री विघ्नेशपुराण का उन्हें सारतत्व समझाया। 
प्रथम उपासनाखण्ड है जिसे ऋषि-मुनियों ने गाया।
त्रिपुरासुर का वध करने शिव ने भी शीश झुकाया।
 सृष्टि कार्य करने को उद्यत विधिवत विध ने गाया।
मुनिवर व्यास ने बुद्धिप्राप्ति के हेतु इसे अपनाया।। १।।

सङ्कष्ट्याश्च विनायकस्य च मनोः स्थानस्य तीर्थस्य वै
दूर्वाणां महिमेति भक्तिचरितं तत्पार्थिवस्यार्चनम्।
तेभ्यो यैर्यदभीप्सितं गणपतिस्तत्तत्प्रतुष्टो ददौ
ताः सर्वा न समर्थ एवं कथितुं ब्रह्मा कुतो मानवः।। २।।

संकष्टीदेवी, गणेश दोउन के मंत्र की और स्थान की।
तीर्थ की औ' दूर्वा की महिमा, भक्तिचरित के गान की।
उनके पार्थिव - विग्रह के पूजन की चर्चा ज्ञान की।
हों जब वे प्रसन्न, सन्तुष्टि करें भक्तन के मान की। 
ब्रह्माजी असमर्थ रहे हैं करने में यशगान की। 
वर्णन मानव कैसे कर पाएगा कृपा निधान की।। २।।

क्रीड़ाकाण्डमथो वदे कृतयुगे श्वेतच्छविः काश्यपः
सिंहाङ्कः स विनायक दशभुजो भूत्वाथ काशीं ययौ।
हत्वा तत्र नरान्तकं तदनुजं देवान्तकं दानवं
त्रेतायां शिवनन्दनो रसभुजो जातो मयूरध्वजः।। ३।।

वर्णन क्रीड़ाकाण्ड का मैं करता इस काल। 
सतयुग में कश्यपतनय दशभुज हुए विशाल। 
काशी आ कर देवान्तक के लिए हुए वे काल।
और नरान्तक का वहीं वध कीन्हा तत्काल। 
त्रेता में षड्बाहु हुए वे गौरी माँ के लाल। 
शिवजी भी तो स्नेह से उन्हें रहे थे पाल। 

हत्वा तं कमलासुरं च सगणं सिंधुं महादैत्यपं
पश्चात्ताप सिद्धिमती सुते कमलजस्तस्मै च ज्ञानं ददौ। 
द्वापारे तु गजानन युगभुजो गौरीसुतः सिन्दुरं।
तम्मर्द्य स्वकरेण तं निजमुखे चाखुध्वजो लिप्तवान्।। ४।।

वाहन किया मयूर को कमलासुर को मारा। 
महादैत्यपति सिन्धु को गणों सहित संहारा। 
ब्रह्माजी ने सिद्धि बुद्धि को इनके लिए विचारा। 
डाली वरमाला दोनों ने धन्य हुआ जग सारा। 
द्वापर में वे हुए गजानन सिन्दुरासुर को मारा। 
मूषक था ध्वजचिन्ह असुर रक्त से निजमुख सँवारा। 

गीताया उपदेश एव हि कृतो राज्ञे वरेण्याय वै
तुष्टायाथ च धूम्रकेतुरभिधो विप्रः स धर्मर्धिकः।
अश्वाङ्को द्विभुजो सितो गणपतिर्म्लेच्छान्तकः स्वर्णदः
क्रीडाकाण्डमिदं गणस्य हरिणा प्रोक्तं विधात्रे पुरा।। ५।। श

दें राजा वरेण्य को गणेश - गीता उपदेश। 
कलियुग में वे धूम्रकेतु हों ब्राह्मण धनी विशेष। 
गौर वर्ण के गणपति धरें वीर का वेश। 
म्लेच्छों को समाप्त कर सन्तों के हर लेंगे क्लेश। 
वे सुवर्ण के दाता होंगे, अश्व ध्वजा विघ्नेश। 
 विधि को हरि ने दिया क्रीड़ाखण्पड उपदेश।। ५।।

एतच्छ्लोकसुपञ्चकं प्रतिदिन भक्त्या पठेद्यः पुमान्
निर्वाण परमं व्रजेत स सकलान् भुक्त्वा सुभोगानपि।

नर जो प्रतिदिन पढ़ रहा भक्ति सहित ये श्लोक । 
भोगे उत्तम भोग सब, मोक्ष मिले परलोक।। 



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