Monday 17 July 2023

BASHIR BADR.. GHAZAL.

मेरे सीने पर वो सर रक्खे हुए सोता रहा 

जाने क्या थी बात मैं जागा किया रोता रहा 

शबनमी में धूप की जैसे वतन का ख़्वाब था 

लोग ये समझे मैं सब्ज़े पर पड़ा सोता रहा 

वादियों में गाह उतरा और कभी पर्बत चढ़ा 

बोझ सा इक दिल पे रक्खा है जिसे ढोता रहा 

गाह पानी गाह शबनम और कभी ख़ूनाब से 

एक ही था दाग़ सीने में जिसे धोता रहा 

इक हवा-ए-बे-तकाँ से आख़िरश मुरझा गया 

ज़िंदगी भर जो मोहब्बत के शजर बोता रहा 

रोने वालों ने उठा रक्खा था घर सर पर मगर 

उम्र भर का जागने वाला पड़ा सोता रहा 

रात की पलकों पे तारों की तरह जागा किया 

सुब्ह की आँखों में शबनम की तरह रोता रहा 

रौशनी को रंग कर के ले गए जिस रात लोग 

कोई साया मेरे कमरे में छुपा रोता रहा

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