Saturday 22 October 2022

MAJAAZ.. CHOSEN WORKS

ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं
जिंस-ए-उल्फ़त का तलब-गार हूँ मैं

इ’श्क़ ही इ’श्क़ है दुनिया मेरी
फ़ित्ना-ए-अ’क़्ल से बे-ज़ार हूँ मैं

कमाल-ए-इ’श्क़ है दीवाना हो गया हूँ मैं
ये किस के हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं

तुम्हीं तो हो जिसे कहती है ना-ख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं

नहीं ये फ़िक्र कोई रहबर-ए-कामिल नहीं मिलता
कोई दुनिया में मानूस-ए-मिज़ाज-ए-दिल नहीं मिलता

कभी साहिल पे रह कर शौक़ तूफ़ानों से टकराएँ
कभी तूफ़ाँ में रह कर फ़िक्र है साहिल नहीं मिलता

शिकस्ता-पा को मुज़्दा ख़स्तगान-ए-राह को मुज़्दा
कि रहबर को सुराग़-ए-जादा-ए-मंज़िल नहीं मिलता

वहाँ कितनों को तख़्त-ओ-ताज का अरमाँ है क्या कहिए
जहाँ साइल को अक्सर कासा-ए-साइल नहीं मिलता

ये क़त्ल-ए-आ’म और बे-इज़्न क़त्ल-ए-आ’म क्या कहिए
ये बिस्मिल कैसे बिस्मिल हैं जिन्हें क़ातिल नहीं मिलता

आवारा-ओ-मजनूँ ही पे मौक़ूफ़ नहीं कुछ
मिलने हैं अभी मुझ को ख़िताब और ज़ियादा

टपकेगा लहू और मिरे दीदा-ए-तर से
धड़केगा दिल-ए-ख़ाना-ख़राब और ज़ियादा

ये बिजली चमकती है क्यूँ दम-ब-दम
चमन में कोई आशियाना भी है

ख़िरद की इताअ’त ज़रूरी सही
यही तो जुनूँ का ज़माना भी है

मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है

ज़माने से आगे तो बढ़िए ‘मजाज़’
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है

हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था
ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था

तिरी नीची नज़र ख़ुद तेरी इ’स्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आज़मा लेती तो अच्छा था

तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

मेहनत से ये माना चूर हैं हम
आराम से कोसों दूर हैं हम
पर लड़ने पर मजबूर हैं हम
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

जिस सम्त बढ़ा देते हैं क़दम
झुक जाते हैं शाहों के परचम
सावंत हैं हम बलवंत हैं हम
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

जिस रोज़ बग़ावत कर देंगे
दुनिया में क़यामत कर देंगे
ख़्वाबों को हक़ीक़त कर देंगे
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ?


No comments:

Post a Comment